UP में पुलिस बन गई सिंघमों का अखाड़ा

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उत्तर प्रदेश में नौकरशाही के कई आयामों के युद्ध देखे और सुने गये हैं। अक्सर आईएएस बनाम आईपीएस, आईपीएस बनाम पीपीएस और पीसीएस बनाम आईएएस की जंग की गूंज सेवा संबंधी मामलों में बनी ही रहती है। लेकिन एक नया मामला सामने आया है। जिसमें प्रदेश के तमाम आईपीएस अफसर आपस में ही झगड़ पड़े हैं और उनकी इस आपसी जूतम-पैजार में सरकार की भी किरकिरी जमकर हो रही है।

शुक्रवार को आईपीएस संवर्ग की अशोभनीय आपसी तलवारबाजी के तूल पकड़ लेने से स्थिति यहां तक पहुंच गई कि खुद डीजीपी को स्थिति साफ करने के लिए मीडिया को बुलाना पड़ा। हां मामला गौतमबुद्ध नगर के स्टंटबाज एसएसपी वैभव कृष्णा का है। जिन समकक्ष अफसरों से उनका कटाजुझ्झ चल रहा है उनमें भी अजय राज शर्मा जैसे अफसर हैं जो कम स्टंटबाज नही हैं। बिडंबना यह है कि योगी के ठोको राज में ऐसे सिंघम ही पुलिस में महत्वपूर्ण पदों पर छाये हुए हैं।

वैभव कृष्णा इसके पहले इटावा में एसएसपी थे। उस समय उन्होंने परिवहन और खनिज विभाग में चल रहे रैकेट को सनसनीखेज और नाटकीय ढंग से पकड़वा दिया था। जिससे उन्हें काफी शोहरत मिली थी। इसी के इनाम बतौर उनको गौतमबुद्ध नगर यानि नोयडा की कमान मिली। देश की राजधानी के करीब उत्तर प्रदेश के इस औद्योगिक नगर में भी उन्होंने तीरंदाजी दिखाने में कसर नही छोड़ी। कुछ महीने पहले उन्होंने पत्रकारों के जत्थे को ब्लैकमेलिंग के आरोप में जेल भेज दिया था। जिसको लेकर लखनऊ के सारे पत्रकार अपर मुख्य सचिव गृह और सूचना अविनीश कुमार अवस्थी से लेकर डीजीपी ओपी सिंह तक से मिले लेकिन वैभव कृष्णा का कुछ नही बिगाड़ सके। यहां तक कि पत्रकारों को जमानत भी नही मिल पा रही है।

इसी प्रकरण में वैभव कृष्णा ने मुख्यमंत्री को एक गोपनीय पत्र लिखा था। इस पत्र में उन्होंने अपने पूर्व नोयडा के एसएसपी रहे अजय राज शर्मा, नोयडा में ही एसएसपी एसटीएफ रहे सुधीर सिंह और हिमांशु कुमार व गणेश शाहा के विरुद्ध पर आरोप लगाया था कि ये उनके समकक्ष आईपीएस अफसर गिरफ्तार किये गये पत्रकारों के माध्यम से इंस्पेक्टरों की तैनाती के लिए सौदेबाजी करते थे। इसकी जांच एडीजी मेरठ को सौंपी गई है। जिसे उन्हें इसी महीने दाखिल करना था लेकिन उन्होंने और मोहलत ले ली है।

इसी बीच कुछ दिनों पहले वैभव कृष्णा की तीन वीडियो क्लिप वायरल हुईं। जिनमे वे एक महिला के साथ अतिश्रंगारपूर्ण अवस्था को प्राप्त हैं। वैभव कृष्णा इससे तमतमा गये। उन्होंने इसे अपने खिलाफ साजिश बताया और इसके लिए उन्हीं अफसरों को जिम्मेदार ठहराया जिनके खिलाफ वे मुख्यमंत्री को गोपनीय पत्र लिख चुके हैं। मजे की बात यह है कि अगर वैभव कृष्णा मुख्यमंत्री के आंखों के तारे हैं तो अजय राज शर्मा आदि उनके प्रतिद्वंदी भी मुख्यमंत्री और डीजीपी के कम चहेते नही हैं।

अजय राज शर्मा ने तो क्या एक्शन में रामपुर में एक रेप आरोपित का एनकाउंटर करने की पिक वायरल कराई थी कि शायद मुख्यमंत्री भी उनकी इस अदा पर कम फिदा नही हुए होगें क्योंकि मुख्यमंत्री को एनकाउंटर, ठोकों और बदला लो जैसी जुमलेबाजी से बड़ा प्यार है। बहरहाल ये सुपर काप अब मुख्यमंत्री के ही गले की हडडी बन गये हैं। तैश में वैभव कृष्णा ने समकक्ष आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ भेजे गये गोपनीय पत्र को मीडिया में लीक करवा दिया। सरकार की इससे फजीहत देख डीजीपी को मीडिया के सामने आना पड़ा। डीजीपी ने कहा है कि वैभव कृष्णा से इस मामले में स्पष्टीकरण मांगा गया है। क्योंकि यह आचरण अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के कोड आफ कंडक्ट के खिलाफ है।

वैसे अभी तक का तजुर्बा यह रहा है कि स्टंटबाज अधिकारी किसी भी शासन की सेहत के लिए ठीक नही होते जो ठीक अधिकारी होते हैं अगर उन्हें किसी कारण से शासन या अपने समकक्षों से आपत्ति होती भी है तो वे मामले को सार्वजनिक रूप से तूल नही पकड़ने देते। याद है कि 1982 और 83 के मध्य प्रदेश में हुए बहुचर्चित दस्यु समर्पण में बड़े खेल हुए थे। इस दौरान मलखान सिंह और घंसा बाबा से लेकर फूलन देवी तक ने अपने आप को कानून के हवाले किया था लेकिन लोगों का कहना था कि दरअसल यह समर्पण डकैतों के नही सरकार का डकैतों के आगे समर्पण था।

इसकी कमान मध्य प्रदेश के उस समय के सबसे बदनाम आईपीएस अधिकारी राजेंद्र चतुर्वेदी को भिंड का एसपी बनाकर सौंपी गई थी। जो कि पीस जोन बनाकर गिरोहों को मौका देते थे कि वे दूसरे जिलों से धन्ना सेठों और बड़े किसानों को अपहृत करके इस जोन में सुरक्षित रखें और फिरौती वसूलें। जब उन्हें लगे कि उन्होंने पर्याप्त पैसा जोड़ लिया है तब समर्पण के लिए हां कह दें और इसके बाद किसी महाराजा की बारात की अगुवानी की तरह उनके समर्पण का जलसा कराने की तैयारी की जा सके। चंबल रेंज के तत्कालीन डीआईजी एमडी शर्मा को राजेंद्र चतुर्वेदी की ये हरकत बहुत ही नागवार लगी थी और उन्होंने राजेंद्र चतुर्वेदी के खिलाफ लिखा-पढ़ी भी की थी पर मीडिया को इसकी भनक नही लगने दी थी।

समर्पण के इतने खिलाफ होने के बावजूद 13 फरवरी 1983 को जब फूलन देवी अर्जुन सिंह के सामने हथियार डाल रहीं थीं और मैं और मेरे  भूपत सिंह जादौन जैसे तमाम साथी मंच पर ही विरोध में कूद पड़े थे तो सारे अफसर सन्न रह गये थे। लेकिन एमडी शर्मा ही थे जिन्होंने अर्जुन सिंह का माइक छीनने वाले भूपत सिंह पर लाठियां बरसानी शुरू की और स्थिति संभालने के लिए पूरे फोर्स को चैतन्य किया।

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में जब सड़कों पर केपी सिंह और बख्शी जैसे माफियाओं का गैंगवार आम बात हो चुकी थी तब दो नौजवान आईपीएस क्रमशः एसपी सिटी के रूप में तैनात हुए और उनकी बदौलत पुलिस का सिक्का राजधानी में कायम हो सका। इनमे एक नाम बृजलाल का था और दूसरा सूर्य कुमार शुक्ला का। लेकिन उन्हीं स्टार पुलिस अफसर बृजलाल ने जब इटावा के एसएसपी के रूप में मुख्यमंत्री के भाई के खिलाफ प्रचार की भूख में कार्रवाई कर दी और निलंबित हो गये तो लोगों ने इसे पसंद नही किया। बाद में बृजलाल ने प्रचार लोलुपता की कार्यशैली को बदला और एसएसपी मेरठ रहते हुए पश्चिमी यूपी के माफियाओं को पस्त करने के मामले में नया इतिहास रचा।

पूर्व डीजीपी स्व. श्रीराम अरुण भी आईपीएस में यूपी कैडर में काफी अच्छे अफसरों में रहे हैं लेकिन मीडिया की हैडलाइन में रहने को ध्यान रख कार्रवाई करके उन्होंने अपने कद को उस ऊंचाई पर पहुंचने से रोका जिसके वे हकदार थे। जब श्रीराम अरुण एडीजी विजीलेंस थे तो उन्होंने डीजी की दौड़ में शामिल हो सकने वाले हर अफसर की फाइल खुलवा दी थी और अखबारों में इसकी खबरें लीक कर दी थीं। जिसे लेकर वे आलोचकों के निशाने पर आ गये थे। बाद में जब वे डीजीपी हुए तो उनके आईपीएस बेटे असीम अरुण ट्रेनिंग के दौरान रेप की एक जांच के सिलसिले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की कार्रवाई की जद में आ गये। उस समय डीजीपी मुख्यालय में मानवाधिकार के मामले देखने वाले एडीजी एसएन चक थे।

मिस्टर क्लीन कहे जाने वाले श्रीराम अरुण ने अपने बेटे के बचाव के लिए तत्कालीन एडीजी एसएन चक के पाले में इस तरह गेंद फेंकी कि उनका बेटा सही सलामत निकल जाये और एडीजी उलझ जायें। अपुन ने देश के अग्रणी पत्रकारों में से एक राजकिशोर जी की पत्रिका दूसरा शनिवार में इस पर एक पूरी रिपोर्ट छापी। हालांकि श्रीराम अरुण एक बेहतरीन अफसर थे लेकिन उनके मामले में भी ज्यादा नाटकीयता और प्रचार लोलुपता को लोगों ने पसंद नही किया था। अमिताभ ठाकुर भी अपनी तमाम अच्छाइयों के बावजूद इसी कमजोरी के भेंट चढ़ने को मजबूर हुए।

दूसरा उदाहरण अरुण कुमार का है जो खामोश रहकर बेबाक कार्य करते थे। राजनाथ सिंह की सरकार में एडीएम हत्याकांड के बाद उन्हें एसएसपी कानपुर की बागडोर मिली जिसके लिए वे बमुश्किल राजी हुए। राजनाथ सिंह ने उन्हें अपने हिसाब से काम करने की स्वतंत्रता का वचन देकर राजी किया और इसे निभाया भी। मुसलमानों को विश्वास में लेकर अरुण कुमार ने कानपुर में जिस तरह शांति को स्थापित किया उसे लोग आज भी याद करते हैं। बिडंबना यह है कि योगी की सरकार अपनी ही पार्टी के पूर्ववर्ती कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के मानकों के अच्छे अधिकारियों को नही तलाश पा रही है। अब लोगों को इंतजार है कि नोयडा के एसएसपी के मामले का पटाक्षेप किस तरह हो पाता है।

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